Sunday, July 26, 2009



ऐ मेरे वतन के लोंगों,
ज़रा आंख में भर लो पानी,
जो शहीद हुए है उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी।


आईए आप भी हमारे संग कारगील के शहीदों को ओपरेशन विजय की दसवीं वर्शागान्थ पर एक श्रधान्जली दीजीए ।
हम उन मानों को अपना नतमस्तक प्रणाम करते हैं जिन्होंने ऐसे वीर सपूतों को जन्म दिया ।

जय हिंद

वर्ष १९९९ में , मैंने अपने मित्रों के साथ कारगील युद्घ पर एक नाटक लिखा था.. 'शहीद', जिसे की हमने कई स्थानों पर प्रतुत किया. उसी नाटक के कुछ अंश आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ . यह एक प्रोफेसर (प) और एक डाक्टर (ड) के बिच के पार्तालाप हैं जब की भारतीय सेना दुश्मन को खदेड़ कर अपनी सीमा से बाहर कर विजय कायम कायमकर चुकी है.

ड: प्रोफेसर साहब , आपने आज का अखबार पढा ?
प: हां..क्यों , कोई ख़ास बात छापी है क्या ?
ड: अरे ख़ास बात ही तो है. बधाई हो प्रोफेसर साहब, हमने जंग जीत ली.
: हमने...या हमारे भारतीय सैनिकों ने?
: अब हम हों या सैनिक, दोनों में अंतर ही क्या है?
: मैं अंतर की बात नहीं कर रहा हूँ, बल्कि मैं तो यह कहना चाह्ताहूँ, की जरा सोच के बताओ डाक्टर की ज़ंगकिसने जीती, घुसपैठ किसने खत्म की, हमने जो यहाँ भारतीयता का चोला पहने खुश होते , ख़ुद पर गर्व करते हैं, या उन सैनिकों ने, जिन्होंने की सीमा पर अपनी जान गवाई है हम तो यहाँ बैठे - बैठे अपना - अपना काम धंधाकरते हैं, रात बीवी के साथ बिताते है, और बच्चों के साथ खेलते - कूदते हैं। पर उस सैनिक के लिए तो...उस सैनिकके लिए तो, सीन पर गोली खाना ही काम - धंधा है, रात में गोला - बारी का साथ ही बीवी का साथ है और अपनी जमीन की फतह ही बच्चों का खेल-कूद हैं. उस सैनिक के जीवन का तो कुछ नहीं
पता की कब एक गोली उसके सीन में कर लग जाए और और वो शहीद होजाए..और पीछे रह जाए...और पीछे रह जाए छोटे - छोटे बच्चे, विधवा बीवी, और बूढे माँ - बाप यहशहीद शब्द...यह शहीद शब्द भले ही हमारे लिए एक अभिमान का प्रतीक बनता हो, पर उन शहीदों केपरिवार जनों के लिए तो एक अभिषाप बन जाता है... एक अभिषाप बीवी का सुहाग, माँ की गोद, बच्चोंका साया, और बाप की लाठी...सब कुछ तो छिन्न जाता है.....
निखिल सबलानिया